पाकिस्तानी हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ लिखने वाले शायर Anti-Hindu कैसे हो गए?
फैज़ अहमद फैज़ का नाम तो आपने सुना ही होगा एक मशहूर शायर थे जो गुलाम भारत के पंजाब में पैदा हुए थे. आज़ादी और बंटवारे के बाद वो पाकिस्तानी हो गए तो अपनी शायरी से पाकिस्तानी हुकूमत की नाक में दम कर के रखते थे. दबे-कुचले लोगों की आवाज़ को उठाना और उस वक्त पाकिस्तान में चल रही तानाशाही के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना उनका मुख्य मकसद था.
उर्दू शायरी में फैज़ अहमद फैज़ के कितने ही शेर हैं जो किसी आंदोलन अथवा सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान पोस्टरों पर लिखे जाते हैं. ट्विटर पर भी इनके शेर नेताओं द्वारा खूब प्रयोग किए जाते हैं.
फैज़ की इस नज़म से हो रही दिक्कत
‘बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी’
फैज़ ने सन 1977 में पाकिस्तानी तानाशाह जिया-उल-हक के तख्ता पलट के बाद लिखी था. वो उस वक्त के समय व संदर्भ के मुताबिक लिखी गई थी. इस नज़म के बोल कुछ ऐसे थे.
इन दो पंक्तियों पर आईआईटी कानपुर की ओर से आपत्ति जताई गई है और इसे गैर हिंदु करार दिया गया है. कहा गया है कि इस नजम की पंक्तियां हिंदु विरोधी हैं तथा इसकी जांच होनी चाहिए.
खैर, फैज़ को उस वक्त की पाकिस्तानी हुकूमत की ओर से भी गलत ही ठहराया गया था क्योंकि वे सरकार के खिलाफ लिखते थे. अब भारत में भी उनका विरोध किया जाना शुरू हो चुका है.
समझने की बात ये है कि एक शायर द्वारा हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ लिखी गई कोई पंक्तियां किसी धर्म से कैसे जुड़ी हो सकती है?
उस वक्त पाकिस्तान की आवाम और हुकूमत दोनो मुसलमान थी, लिखने वाला भी मुस्लिम ही था. इन सब में हिंदु धर्म के लिए न तो कोई जगह थी न ही कोई बद-इरादा.
फिर ये फैज़ अहमद फैज़ हिन्दु विरोधी कैसे हो सकते हैं?
सोचने वाली बात है कि खबरें बनाने के लिए किसी भी व्यक्ति को आड़े हाथों लिया जा सकता है. नफरत फैलाने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाया जा सकता है.
आप इन सब को नजरअंदाज कर, शायरी के मजे लीजिए!
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