आज राष्ट्रीय हिंदी दिवस है और हिंदी भाषा की सबसे विचित्र बात है कि शब्द “हिंदी” ही हिंदी का नहीं है.
तिब्बत के मानसरोवर से शुरू होकर हिंदुस्तान के रास्ते पाकिस्तान की ओर जाने वाली नदी सिंधु के नाम पर ही “हिंदी” का नाम पड़ा है.
कमाल की बात है कि शब्द “हिंदी” खुद फारसी भाषा का है जो कि सिंधु तथा सिंधी से परिवर्तित होकर ऐसा बना है.
ये आम बात है कि भारत में हिंदी को हिंदुओं की व उर्दू को मुस्लमानी जुबान माना जाता है. जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अथवा पहले के समय में हिंदी + उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था, जिसे “हिंदुस्तानी” भाषा कहते हैं.
आज हिंदी दिवस के अवसर पर हम विभिन्न लोगों से बात कर हिंदी व हिंदुओं के बीच का जुड़ाव जानने की कोशिश करेंगे.
धार्मिक गतिविधियों से जुड़े रहने वाले पंजाब के राजपुरा शहर के निवासी यशपाल शर्मा बताते हैं कि उनके परिवार सहित कुछ लोग लगभग 75 साल पहले पाकिस्तान के बहावलपुर से इस शहर में आकर बस गए थे.
इसी वजह से उनके इलाके में ज्यादातर लोग बहावलपुरी भाषा बोलते हैं या फिर हिंदी बोलना पसंद करते हैं.
सूबे की राजभाषा पंजाबी होने के कारण वे सब पंजाबी को अच्छी तरह से लिख व पढ़ सकते हैं, पर बोलने की बात आए तो उनके शहर में हिन्दी का ही प्रचलन ज्यादा है. वो बताते है कि शहर के सिक्ख लोग भी हिंदी बोलने में नहीं झिझकते बल्कि अच्छी-खासी हिंदी बोल लेते हैं.
हाँलांकि उनके मुताबिक हिंदी भाषा का हिंदु धर्म के साथ कोई संबंध ढूंढना बेकार है.
जहाँ आजकल तमिल, तेलुगु और हिंदी भाषाओं के बीच का तनाव सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है. वहीं पंजाब के कुछ हिस्सों में भी हिंदी के लिए ऐसी ही भावना को देखा जा सकता है, जहाँ हिंदी बोलने वालों का मज़ाक उड़ाया जाता है.
हरियाणा के अंबाला शहर में रहने वाले रमनदीप सिंह से इस बारे में बात करने पर वो बताते हैं कि “ पिताजी की अलग-अलग जगहों में ट्रांसफर होने के चलते हम विभिन्न इलाकों में रहे. हमारा बचपन यूपी के सहारनपुर में बीता जहां सभी लोग हिंदी में बात करते थे. घर में सिर्फ माता-पिता ही पंजाबी में बात करते थे लेकिन हमें कभी सीखने के लिए मजबूर नहीं किया. हमने बचपन से हिंदी ही सीखी है और आज भी हिंदी को ही अपनी फर्स्ट लेंग्वेज के तौर पर मानते हैं.”
रमनदीप सिंह पेशे से हिंदी भाषा के लेखक है और कविताएं व गीत लिखने में रुचि रखते हैं. इनके मुताबिक हिंदी मूलत: हिंदुओं की ही भाषा थी लेकिन अब यह पूरे हिंदुस्तान की भाषा बन चुकी है. यही एक भाषा है जो पूरे देश को आपस में जोड़ने का काम करती है.
संस्कृत भाषा से जन्मी हिंदी भाषा का जन्म लगभग 1000 वर्ष पुराना माना जाता है. लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि यह संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई है तो इसे और भी ज्यादा पुरानी कहा जा सकता है. यह देश में आने वाली शुरुआती भाषाओं में से एक थी. फिलहाल विश्व में हिंदी बोलने वालों की जनसँख्या तीसरे स्थान पर है और भारत में पहले. भारत के अलावा नेपाल, अमरीका, मॉरीशस, फिजी, बाली और सिंगापुर में भी हिंदी बोलने वालों की काफी तादाद है.
प्रयागराज के रहने वाले सक्षम द्विवेदी जो कि हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हैं और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से “इंडियन डायसपोरा” विषय पर शोध कर चुके है. इनका कहना है कि “हिंदी और हिन्दू में भाषा विज्ञान के दृष्टिकोण से मात्र सह उत्पत्ति का संबंध है अर्थात वैदेशिक उच्चारण भिन्नता के कारण सिन्धु को हिंदू और इनकी बोली को ईरान द्वारा हिंदीका का कहा गया जो बाद में हिंदी कहलाई.
परन्तु इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना समीचीन नहीं होगा कि सनातन धर्मावलंबियों की भाषा को हिंदी कहा जाए क्योंकि इसमें अरबी, फ़ारसी के भी शब्द विद्यमान हैं.
हाँ ये अलग बात है कि लिपि देवनागरी व सर्वाधिक संस्कृत के शब्दों के समावेशन ने इसे सनातन धर्म के निकट रखा. स्वतंत्र भारत में भाषा को सांस्कृतिक अस्मिता से जोड़ कर देखा गया तथा सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की एक नई जंग शुरू हो गई.
तमिल, इंग्लिश, उर्दू व हिंदी भाषा के महत्व का राजनीतिकरण प्रारम्भ हुआ. इसमें उर्दू, इंग्लिश व हिंदी को धर्म विशेष से सम्बंधित करना राजनैतिक लाभ का विषय बन गया. अतः इस्लामिक तुष्टिकरण की राजनीति कर रहे लोगों द्वारा मदरसों में अरबी तथा उर्दू को, ईसाई मिशनरियों में इंग्लिश को व हिन्दू हितों की राजनीति करने वाली संस्थाओं द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों में संस्कृत व हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जाने लगा जो बदस्तूर जारी है.
वास्तविकता तो यह है कि चाहे हिंदी हो या कोई अन्य भाषा मात्र भावों की अभिव्यक्ति का साधन है अतः इसे धर्म से ना जोड़कर अल्फ़ाज़ों, शब्दों या वर्ड्स का प्रयोग, सद्भाव संवर्द्धन हेतु ही उचित है और किसी भी भाषा का अंतिम लक्ष्य भी”.
ये बात हम सभी जानते हैं कि भारत में दक्षिणपंथी संगठन हिंदी को हिंदुत्व के साथ जोड़कर समय समय पर प्रदर्शन करते आए हैं. साथ ही हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाने का मुद्दा भी उठता आया है. लेकिन दक्षिण भारत व महाराष्ट्र के नेता हमेशा से इसका विरोध करते आए हैं.
महाराष्ट्र की राजनीति पर लिखने वाले पत्रकार अजित बायस का मानना है के किसी भी भाषा को किसी धर्म विशेष से जोड़कर रखना मूलतः उस भाषा व संस्कृति के साथ ही एक तरह का खिलवाड़ है.
“हिंदी कभी भी सिर्फ हिंदुओ की भाषा नहीं हो सकती. ऐसे प्रयासों के पीछे हिंदी बेल्ट की हिंदू बहुल राजनीति है. भारत में मुसलमानों का बड़ा तबका है, जिन्होनें हिंदी को सजाने-संवारने में अपना योगदान दिया है. हिंदी को हिंदुओं की भाषा बनाने की कोशिश को मैं उनके योगदान को भुलाने के तौर पर देखता हूं.
अगर आप हिंदी को हिंदुओं की भाषा के तौर पर प्रस्थापित करना चाहते है तो आप उन तमाम क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाले हिंदुओं को क्या जवाब दोगे..? महाराष्ट्र में तो फिर भी हिंदी की अच्छी समझ है, और लोग अच्छे से हिंदी बोल भी लेते हैं. पर जब आप नीचे जाते हो तो दक्षिणी भारत के कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में हिंदी के प्रति लोगों की राय ज्यादा अच्छी नहीं है. जब कि वहाँ भी हिंदुओ की जनसंख्या ज्यादा है. तो क्या वहाँ के लोगों को आप बस इसलिए हिन्दू नहीं मानोगे, क्योंकि वे हिंदी को पसंद नहीं करते..?
बस धार्मिक एंगल ही नहीं, मैं तो किसी भी भाषा को किसी भी एंगल से थोपने के ही खिलाफ हूँ. कोई भी भाषा बहुत प्यारी चीज होती है, और उसे हम तब ही अपना सकते है, जब हमें उसके प्रति लगाव हो. मैं अपनी मातृभाषा मराठी के अलावा हिंदी और अंग्रेजी जानता हूं. पर उससे भी आगे जाकर मैं उर्दू सीखने का प्रयास निजी तौर पर कर रहा हूँ. वो बस इसलिए क्योंकि मुझे उर्दू से प्यार और लगाव है. भाषाओं के प्रति जब तक हमारे अंदर से संवेदनाएं नहीं आएगी, तब तक उसे थोपने के प्रयास बेकार ही रहेंगे.
इन लोगों से बात करने पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि देश में बेशक हिंदी भाषा बोलने वालों की सँख्या ज्यादा है, परंतु वो सभी हिंदू नहीं हो सकते. उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड में मुस्लिम बहुल इलाकों में भी हिंदी या उसकी बोलियाँ ही प्रचलित हैं. पंजाब, तमिलनाडु. केरल, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में हिंदू जनसंख्या भी हिंदी नहीं बोलती.
अत: हिंदी के नाम पर हिंदुओं की भावनाओं के साथ केवल खेला जा रहा है.
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