निजी क्षेत्र में बैंक सुधार के लिए जून 2020 में गठित भारतीय रिज़र्व बैंक के आतंरिक कार्य समूह ने हाल ही में जो अनुशंसा दी है उनमें कॉर्पोरेट को सीधे बैंकिंग सेक्टर में प्रवेश की अनुमति पर मुहर चौंकाने वाली है। सरल अर्थों में समझें तो बड़े औद्योगिक समूह व कॉर्पोरेट घराने अब इस देश में खुद का बैंक तक खोल सकेंगे। जिसमे पूँजी निश्चित तौर पर जनता की होगी मगर स्वामित्व कॉर्पोरेट का ही रहेगा।
जब देश के आर्थिक हालात डगमगा रहे हों, महामारी, महंगाई, मंदी के बीच आमजन अपने आप को किसी तरह संभालने में लगा हो, बावजूद सरकार समर्थक कुछेक कारोबारियों की संपत्ति में दनादन बढ़ोतरी हो रही हो, ऐसे समय पर ज़रूरत है कि देश की सरकार और केंद्रीय बैंक वित्तीय व्यवस्था में पारदर्शिता और पक्षपातरहित संचालन की दिशा में काम करे। बीते कुछ सालों में नोटबंदी, अनियोजित जीएसटी व लॉकडाउन जैसे सिलसिलेवार आर्थिक क़दम आम और गरीब तबके के लिए विध्वंसकारी साबित हुए हैं।
पीएनबी, पीएमसी, यस बैंक और हालियां लक्ष्मी विलास बैंक में जो वित्तीय गड़बड़ियां सामने आई हैं उन्हें देखते हुए बेहतर हो कि बैंकिंग क्षेत्र में आमजन के भरोसे में इज़ाफ़े के लिए कुछ क्रांतिकारी क़दम उठाएं जाएं। देशवासियों में यह विश्वास पुख़्ता हो कि बैंकों में उनकी जो जमापूंजी रखी है वह हर हालात में सुरक्षित है और उसके द्वारा अदा किए जा रहे टैक्स का दुरुपयोग नहीं हो रहा।
गौरतलब है कि मार्च 2018 तक इस देश के बैंकों पर भारित एनपीए (गैर निष्पादित परिसंपत्ति) का लगभग 73% कॉर्पोरेट हस्तियों, उद्योगपतियों के कारण है। इसे रकम में देखा जाए तो करीब 7 लाख करोड़ रुपये की पूँजी औद्योगिक समूहों की तंगहाली या कहे कि इच्छाशक्ति की कमी के चलते आज एनपीए में तब्दील हो चुकी है। बात अगर किसान कर्जमाफी पर की जाए, जिस पर अक्सर विमर्श होता है तो ये आंकड़ा तुलनात्मक तौर पर बहुत कम करीब 85 हज़ार करोड़ रुपये बैठता है।
यह संकेत है कि गरीबी-अमीरी के मध्य असमानता की गहरी खाई के साथ ही देश इस खाई में कॉर्पोरेट के हाथों झूल रहा है और झूलने का यह तरीक़ा सवा अरब से अधिक आबादी वाले देश को भारी पड़ सकता है। विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी महज़ गिनती के कुख़्यात नाम हैं, इनके इतर भी कितने ही ऐसे उद्योगपति हैं जो देश के बैंकों का पैसा लेकर फरार हो चले हैं। परिणाम ये कि बैंक कंगाल और आम उपभोक्ता बेहाल हुए। धोखाधड़ी की ये लीक किसी एक सरकार में नहीं बल्कि शुरू से ही फल-फूल रही है। हितों के टकराव से बैंकिंग को सुरक्षित करने और इस सिस्टम को भरोसेमंद बनाने के ध्येय से साल 1969 में इंदिरा गांधी को बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था। तब शायद एनपीए भी इतना नहीं ही था।
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अब आरबीआई की हालियां अनुशंसाओं पर आज की स्थिति के अनुसार सोचकर देखिए कि कॉर्पोरेट का खुद का बैंक होगा, पैसा जनता का होगा और किसे लोन देना है किसे नहीं ये तय भी कॉर्पोरेट ही करेगा। यानी कोई औद्योगिक घराना अपने ही बैंक से जब चाहे जितना लोन लेकर मुनाफ़ा कमाएगा और जो दिवालिया घोषित हुए तो राइट ऑफ कर सरकार संभाल लेगी, इसकी एक आस तो रहेगी ही।
ऐसे में उम्मीद कीजिए कि ये सिफारिशें लागू न हो, बैंकिंग विनियमनकारी अधिनियम-1949 में ऐसा कोई संशोधन न करना पड़े और बैंकिंग जैसे संवेदनशील सेक्टर के प्रति सरकार अपनी ज़िम्मेदारी व जवाबदेही को लेकर गंभीर बनी रहे।
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